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लंगड़ा रे घोड़ी चढ़में की नै। उर्फ आओ पीएम पीएम खेले (व्यंग)

sathi
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अरूण साथी
शेखपुरा, बिहार

पीएम की कुर्सी क्या हुई मुआ पंडितजी की घोड़ी हो गई, जो-सो, जहां-तहां चढ़ने को बेताब है। मुई घोड़ी तो घोड़ी ठहरी, कोई चढ़ा नहीं की बिदक भी जाती है।

सब जगह भगदड़ मची है। एक तो आधी जान की घोड़ी और उस पर पंडितजी की सवारी, गोया पंडित जी जबसे चढ़े है उतरने का नाम ही नहीं लेते।(वैसे जो भी चढ़ा है वह राजी से उतरना नहीं चाहता) कई अपने भी इस उम्मीद में मुई घोड़ी को टंगड़ी मार रहे हैं कि वह पंडित जी को पटक दे और उनका नंबर आ जाए। इसी कोशीश में ऐ जी, ओ जी, लो जी, सुनो जी, सब हथकंडा लगा दिया पर राम राम, पंडित जी घोड़ी पर से उतने के बजाय नाक पर रूमाल बांध, दे चाबुक की ले चाबुक-सरपट घोड़ी भगा रहे है।

और, अब विरोधी सब भी बैखला गए हैं। सोते-जागते, पीएम-पीएम खेल रहे है। कभी किसी को पीएम का सपना आ जाता है तो कभी कोई किसी को पीएम का सपना दिखा देता है। मुई भुखी, प्यासी और बिमार घोड़ी पर चढ़ने के लिए पता नहीं सब कब से हंफिया रहें हैं। कहीं कोई अधवैस (युवा) दलित भोजनम् का जाप करते हुए दलित के घर भोजन (सुखी रोटी या फिर माड़-भात नहीं) करते हुए गुनगुना रहा है-
घोड़ी पर चढ़के सवार,
आया है दुल्हा यार,
कमरिया में बांधे भ्रष्टाचार….
सब जैसे जबरदस्ती के बराती बन, जय हो, जय हो भज रहे हैं।
और उधर रथ लेकर निकले रूठे महाशय चौरासी की उम्र में घोड़ी पर चढ़ने को बेताब हैं। कई बार असफल रहते हुए नाक मूंह तुड़बाने के बाद भी गुनगुना रहे-
अभी तो मैं जवान हूं,
अभी तो मैं जवान हूं।
मोती कुछ न बोलना,
मुंह न अपनी खोलना।
सांस जरा थम तो ले,
मंदिर जरा हम तो ले….।

ओह, मुई घोड़ी की नन्ही जान और लाख आफत। जब रेस ही लगी हो तो कौन चूकेगा। सो मत चूको चौहान की तर्ज पर सबके साथ तीन टांग वाला लंगरू नाई भी रेस में है। उसके पास भी सबका माथा मूंड़ने का पुराना अनुभव है। उसे आश है कि चार टांग वाले जब सब आपस में लड़-भीड़ रहे है तो शायद उसे मौका मिल जाए। सेठ करोड़ी मल उसे बार बार ललकारता भी रहता है-लंगड़ा रे घोड़ी चढ़में की नै। लंगड़ा रे घोड़ी चढ़में की नै। जय हो।

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