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रिर्पोटर, वेश्या और धोबी का कुत्ता

sathi
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अरूण साथी
रेप से जीवन खत्म नहीं हो जाता! एक तरफ जब मुंबई में रेप पिड़ित महिला पत्रकार ने यह बात कही तो इससे उसके अन्दर के जज्बे को समझा जा सकता है। समाज के लिए जीने का यह जज्बा ही किसी को एक पत्रकार बनाता है। उसे बुराईयों के खिलाफ निहथ्था लड़ने-भिड़ने का साहस देता है।
दूसरी तरफ युपी के पत्रकार राकेश शर्मा की सीएम के गृह जिले में गोली मार कर हत्या कर दी जाती है। मीडिया और समाज उस तरह रिएक्ट नहीं करते जिस तरह युपी के एक डीएसपी के मरने पर किया या किसी सेना के शहीद होने पर…।
यही सवाल मन को मथने लगता है। आखिर किसके लिए और क्यों? हमलोग रोज रोज किसी माफिया और पुलिस प्रशासन से टकराव मोल लेते है। कहीं किसी दलित की आवाज बनतें है तो कहीं जुर्म को बेनकाब करते है, पर क्यों? क्या चंद सिक्कों के लिए? पर सिक्के भी कहां मिलते है? नामी गिरामी अखबार हो या चलंत टाइप, उसके लिए हमारे जैसे रिर्पोटर की हैसियत धोबी के कुत्तों की तरह ही है। जब मन हुआ एक आध रोटी का टुकड़ा फेंक दे दिया, बात खत्म। तभी तो अखबार दस रूपये प्रति न्यूज के हिसाब से आज भी ज्यादातर रिर्पोटरों को मेहनताना देता है और कभी कभी फोटो छप गया तो तीस से पच्चास रूपये। और न्यूज चैनल, नेशनल हो तो उसके लिए सर्वोसर्वा प्रदेश की राजधानी का रिर्पोटर ही महत्व रखता है। जिला रिर्पोटर की खबर पर वह लाखों का वेतन लेता है बाकि जिले वालों के लिए उसके पास बस साल में कुछ स्टोरी के हिसाब से पैसे है और लोकल चैनल तो बस, साल दो साल तक करार के बाद भी पैसा नहीं देते और चूं चपड़ किया तो निकाल बाहर!
और समाज! जिसके लिए जीने मरने का हम दंभ भरते है वह भी हमें अपने सारोकार की चीज नहीं समझता। उसे लगता है कि हम यह सब अपने मीडिया हाउस के नौकरी के लिए कर रहे है, बस!
बाकि बचा पत्रकारों का भ्रष्टाचार, तो जो जयचंद टाइप मित्र है वह भी कुछ खास नहीं कर पाते। अपने पेट्रोल जला कर यदि किसी नेता लीडर को कवर कर खुश कर दिया तो उनसे कुछ चंद सिक्के मिल जाएगें या फिर दलाली करने वाले मित्र भी दाल रोटी की जुगाड़ से आगे नहीं निकल पायें है। ज्यादा से ज्यादा घर में एलसीडी और फ्रिज सहित बाहरी चकमक कर पाते है, अंदर से खोखला ही। बाकि उनके बिकाउ होने का ढोल ऐसे पीटा जाएगा जैसे दुनिया का सबसे भ्रष्ट वहीं हो।
उदाहरण देखिए। मेरे यहां नगर पंचायत के द्वारा दो करोड़ का टेंडर होना था। सभी ठेकेदारों ने एक दबंग के ईशारे पर मैनेज कर पूरे रेट पर टेंडर भरा, जो पन्द्रह प्रतिशत कम पर भरने वाले थे उसे भगा दिया। एक मित्र को भनक लगी तो पहूंच गए। कैमरा खोला, चमकाया और बैठ गए कुर्सी पर। काफी हिला-हबाला के बाद पांच सौ का एक गांधी जी थमा कर उनको चलता कर दिया गया। जिन्हांेने मैनेज किया वहीं मेरे पास आकर शिकायत भरे अंदाज में कहते है फलांना तो काफी भ्रष्ट है, एक दम से अड़ गया, जब पांच का पत्ता दिया तब खिसका। हद है भाई, दो करोड़ के टेंडर में पन्द्रह प्रतिशत के हिसाब से तीस लाख का बारा न्यारा किया और एक रिर्पोटर को पांच सौ क्या दिया तो सबसे खतम वही हो गया? कई उदाहरण है….खैर।
बात यहीं खत्म नहीं होती। अब तो संपादक जी भी बैठक में कहते है कि रिर्पोटरों की पहचान तो बैनर से ही। दरोगा जी कुर्सी देते है, यह शान किसके पास है?
बात तो सही ही लगती है, साफगोई से कहूं तो शायद अब अपने अहंकार की तुष्टि ही एक मात्र कारण नजर आता है। या फिर अपने खबर को देखने का एक सुख भी है जो स्खलन सुख की ही तरह शकून से भर देता है वरना यदि बच्चों के भविष्य और घर के चुल्हे की सोंचू तो रातों को नींद नहीं आती लगता रहता है कि मर-हेरा गया तो कोई बड़ा सा बीमा भी नहीं कराया, क्या होगा परिवार का…..। ईमानदारी का तंमगा अपने मन में टांगे रहे और पेट में पाव भर अनाज के बिना भी छाति अकड़ा कर जीते रहे… बस।
हम लोगों के लिए न तो मजदूरी का कानून है, न ही मानवाधिकार। मीडिया घराने हमारा शोषण करते है और हम उफ् तक नहीं कर पाते, ठीक कोठे पर बैठे उस वेश्या की तरह जिसके रूप-श्रृंगार के जलबे का मजा तो जवानी में सब लूटते है पर उसके अंदर की तकलीफ चकाचौंध की दुनिया में खो सी जाती है। उसके आंसू अंदर ही अंदर बहते है और उसकी मुस्कान पर दुनिया फिदा हो जाती है…. हाय….

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