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झपसु मियाँ… ( एक सच्ची घटना)

sathi
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(अरुण साथी)
“की हो झा जी, की मर्दे; आदमी साठा तब पाठा, वियाह कर ले बेटबा-पुतहुआ ठंढा हो जइतौ ।” झपसु मियाँ जब नित्य दिन की भाँति अपने दालान पे बैठने आये अपने मित्र कपिल झा को वियाह करने की सलाह दी तो एकबारगी सब ठठा के हँस पड़े । ऐसे ही थे झपसु मियाँ । बीते दिनों उनका इंतकाल हो गया तो गाँव भर के लोग उनके जनाजे में शामिल हुए और गाहे बेगाहे उनके कर्मो का बिश्लेषण होने लगा ।
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छः फुट से एक-आध इंच अधिक ऊँचा । गोरा-चिट्टा । संस्कारी । उजर बगबग कुर्ता, गमछा, धोती उनको दूर से पहचानने के लिए काफी था । पीछे ढेंका खोंस के धोती पहनना उनको जमींदारी रुबाब देता था । सभी उनको सदा- सर्वदा इसी रूप में देखा है । 75 साल की उम्र में भी प्रति दिन दाढ़ी बनाना उनका शगल था । नमाज, टोपी, दाढ़ी जैसे धार्मिक आडम्बर का प्रदर्शन करते उनको किसी ने नहीं देखा । गाँव में मस्जिद तो थी नहीं पर तीन किलोमीटर दूर बरबीघा के मस्जिद में वो जुमा का नमाज पढ़ने कभी कभार जाते थे पर वही धोती पहन के, ढेंका खोंस के….
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झपसु मियाँ पाँच सौ घर हिन्दुओं की बस्ती बिहार के शेखपुरा जिले के बरबीघा स्थित बभनबीघा गाँव में एक मात्र घर मुस्लिम परिवार के मुखिया थे । वैसे तो उनका नाम नसीरुद्दीन था पर इस नाम से पूरे गांव में उनको कोई नहीं जानता । उनका बड़ा परिवार था और सबको संभाल के रखना उनकी जिम्मेवारी । बच्चों के नाम भी राजेश, छोटे, बेबी, रूबी.. यही सब । किसी को शायद ही एहसास हुआ हो की वो एक मुसलमान है । आपसी प्रेम, सौहार्द, भाईचारा जैसे सारे शब्द इस गांव और इस परिवार तक आकर लघु हो जाते ।
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गाँव में खेती बाड़ी के मामले में बड़े किसान और आधुनिक खेती के दम पे अच्छी पैदाबर प्राप्त करने वाले । आज से तीस साल पहले अपने बचपन के बहुत सारे दिन उनके बिजली से चलने वाले एक मात्र बोरिंग पे स्नान करके बिताये है । उनके बगीचे से अमरूद, फनेला चुराये….।
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गाँव में किसी की भी मौत हो वो बेहिचक झपसु मियाँ के बोरिंग पे लगे बंसेढ़ी से बांस काट के ले आते और उसी की रंथि बनती । उनके यहाँ ख़ास अवसर पे जब भी भोज होता तो पूरा गाँव भोज खाने जाता । भोज की सारी ब्यवस्था के लिए गांव के हिन्दू ही प्रमुख होते और इसमें उनके परिवार का भी दखल नहीं होता । भोज से पहले भंडार संकलप करने के लिए पंडित जी आते तो उनको दक्षिणा भी झपसु मियाँ ही देते । और वो जब भोज खाने जाते तो एक साथ पंगत में बैठ कर खाते ।
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उनकी एक खासियत यह भी थी की यूँ तो वो ऊपरी तौर बहुत ही धीर और गंभीर थे पर अंदर से एक बच्चे का स्वभाव । गाँव में किसी की साली आती तो वो उसको छेड़े बिना नहीं छोड़ते चाहे वह उनके बच्चे की उम्र की ही क्यों न हो । जैसे ही किसी ने परिचय कराया की यह मेरी साली है तो बोल पड़ते..”बड़ी खूबसूरत हखुन, एतबर गो गाँव में इनखरा ले दूल्हे नै है हो मर्दे, वियाह करा दहीं..बेचारी मसुआल हखिन..।”

और अपने पडोसी पंडीजी की पत्नी को वो रोज चिढाते… ” सुन्लाहीं हो पंडीजी नै हखिन औ उनकर घर में ऐ नया मर्दाना के जाते देखलिय…” और पंडीजी के कन्याय छिद्धीन छिद्धीन गाली देना शुरू कर देते …
और वही पंडीजी जी जब पैसे के अभाव में इलाज कराने से असमर्थ थे और मरणासन्न, तो झपसु मियां को तकलीफ होने लगी । पंडीजी के घर जाकर हाँक लगायी और रिक्शा बुला कर पैसा देकर उनको इलाज कराने भेज दिया ।
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सरस्वती पूजा का चंदा देने में भले ही गांव के बड़े बड़े बाबू साहेब बच्चों को दुत्कार देते पर झपसु मियाँ पहले प्रेम से चंदे की राशि को लेकर तोड़ जोड़ करते और फिर जेब से पैसा निकाल दे देते ।
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आज जहाँ धार्मिक उन्माद और अतिवाद हिन्दू और मुसलमान दोनों तरफ से चरम पे है तो वैसे में झपसु मियां को पढ़कर दोनों पक्षों के अतिवादी शर्मसार होंगें… भले ही वो कुतर्क कुछ भी दे… आदमी है, तो शर्म तो आएगी ही..राजतिज्ञ यदि धर्म का जहर न बोयें यो भारत में सौहार्द की फसल ऐसे ही लहलहाएगी….।

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